Wednesday, March 2, 2011

इंसान



कुछ देर से सही
चेहरे पे तुम्हारे भी
एक चेहरा चस्पा निकला
आसान नहीं फ़रिश्ता बनना
इंसानों सा आखिर
तुम्हारी भी फितरत का 
किस्सा निकला
मतलब से बाबस्ता
इंसान का इंसान से रिश्ता
क्या फर्क पड़ता है
तू सच्चा है या झूठा
अपनी अपनी राय है
अपना अपना मुद्दा
हम कैसे और क्यों अब
तुम्हारे मेहरम होते
हम ठहरे इंसान और तुम
कहते हो अपने को   ख़ुदा !



-----सुदेश भट्ट ------

Saturday, February 26, 2011

क्यों

दिल की ये बेचेनियाँ
अनबुझी सी ये
जिंदगी की पहेलियाँ
उलझी उलझी सी
हर उलझन
खुद से ही 
ये रोज़ की अनबन
बेतरतीब सा 
क्यों हो गया है
छोड़ के सलीका 
ये मेरा मन


-----सुदेश भट्ट ------

Tuesday, February 1, 2011

तुम

       तुम

दिल से की हुई 
इबादत सी हो तुम 
प्यार से लिखी हुई 
इक इबारत सी हो तुम
बड़े जतन से हांसिल हुई
कोई महारत सी हो तुम
सबकी नज़र बचा के 

अदा से की गई 
एक शरारत सी हो तुम
गुनगुनाये हर पल
जिनको दिल बेख्याली में 

ऐसे तरानों सी हो तुम
बचपन के छोटे छोटे  
मासूम बहानों सी हो तुम
नशेमन तुम्हारी दो आँखे 
छलकते हुए पैमानों सी हो तुम
हर रोज़ लगे
जिसमे ये दुनिया नई  

ऐसे जादुई आईने सी हो तुम
अलग अलग सबके लिए ज़िन्दगी के
खूबसूरत मायनों सी हो तुम
सर्द रात के बाद 

उगते सूरज की तपन सी हो तुम 
दूर हो मगर
नज़र को नसीब हो
रातों को चाँद से चकोर की 

लगन सी हो तुम!
---सुदेश भट्ट ---

Wednesday, November 10, 2010

दर्द

दर्द को पी गया

देके खुद को फरेब

देख मैं फिर

मुगालतों में जी गया

आह निकली तो थी

दिल से मेरे

गौर तलब है

की मेरे खुदा

तू अनसुना कर गया

आखरी मेरी ख्वाहिशों में

था तेरा नाम

ये अलग बात है

आखरी वक़्त में

अपने होंठो को मैं सी गया

रजिशों में भी तेरी

थी कोई बात

की मैं तुझको

खेर मकदम अपना कह गया

--सुदेश भट्ट ---

Thursday, October 21, 2010

क्यों

ये उदासी का आलम

जाता क्यों नहीं ,

तू मुझको फिर से

रुलाता क्यों नहीं.

कब तक सहूँ


तेरी ज़ुल्मतो के वही करम ,

तू मुझ पे कोई

नया सितम ढाता क्यों नहीं.

नम आँखों से मेरी

बहने लगें अश्क ,

तू मुझको

कभी इतना हंसाता क्यों नहीं.

जो हर रोज मैं

लाख जतन से छुपाता हूँ,

वो तुझको

कभी नज़र आता क्यों नहीं.

कितना भी हूँ

दूर तुमसे मैं लौट आऊंगा,

तू मुझको

शिद्द्त से कभी बुलाता क्यों नहीं

--सुदेश भट्ट---

Saturday, September 18, 2010

फासले

वक़्त की गर्दिश में

ये भी अहसास हुए

तुम पहले दूर से करीब

और फिर पास से बहुत दूर हुए

केसा है चलन

देखो उल्टा जमाने का

हम तुम में और

तुम खुद में मसरूफ हुए

आदत सी हो गई तेरी

खुद के बनाए इन सिलसिलों में कही

मेरे सफ़र को थी तन्हाई की तलाश

तुम खोये रहे काफिलों में कहीं

मेरी हर साँस ने तुझे ढूंढा

मेरे हर पल ने तेरी कमी महसूस की

तेरे मेरे दरमियाँ कुछ तो है

कभी ख़तम न होने वाले

ये फासले ही सही

--सुदेश भट्ट ---

Wednesday, September 1, 2010

आओ

आओ तुम्हारी खुबसूरत आँखों की

आज फिर बात करें

बेनूर बहुत है ये दुनिया

आओ आज कुछ नूर की बात करें

जो पल में गुजर गए

आओ उन लम्हों की बात करें

जब तुम अपने से लगे थे

आओ उन दिनों के बेगानेपन की बात करें

तुमने किये मैंने समझे

जो मैंने किये तुम नहीं समझे

आओ उन इशारों की बात करें

जो जर्रे जर्रे में बस गई

आओ तुम्हारी उस खुशबू की बात करें

जो कर गई हर शय को खुशनुमा

तुम्हारी उस मुस्कराहट की बात करें

है रात अँधेरी तो क्या अंधेरों से उजाले की बात करें

आओ तुम को सोचें और चाँद की बात करें


--सुदेश भट्ट---

Wednesday, August 11, 2010

दिल

एक सन्नाटा सा

गुंचा ए दिल में पसरा रहा

दर्द भी दिल में

सहमा सहमा सा रहा

न था तुझे वक्त

मुझको समेटने का

तिनका तिनका में

तुझ में बिखरा रहा

न तुझ में तू मिला

न मुझ में मैं रहा

क्यों तेरी आँखों ने

मेरी नज़रों को आवारा किया

----सुदेश भट्ट -----

Thursday, August 5, 2010

कभी कभी

छोटी छोटी बातें

कभी कभी बड़ी लगती है

कभी लगे जिंदगी छोटी सी

कभी कभी बड़ी लम्बी लगती है

कभी दूर लगें सारी खुशियाँ

कभी-कभी हरदम पास लगती है

ज़िन्दगी ए ज़िन्दगी

तू मुझको जादूगर लगती है

कभी मुस्कराती खिलखिलाती

कभी कभी गमगीन सी लगती है

थोड़ी खट्टी थोड़ी मीठी

कभी कडवी कभी कभी नमकीन लगती है

ज़िन्दगी ए ज़िन्दगी

तू मुझको जादूगर लगती है

कभी लगे तू जानी पहचानी

कभी कभी अनजान सी लगती है

कभी बड़ी मुश्किल सी

कभी कभी बड़ी आसान लगती है

ज़िन्दगी ए ज़िन्दगी

तू मुझको जादूगर लगती है

--सुदेश भट्ट---

Saturday, July 3, 2010

तुम

रिमझिम रिमझिम

तपते जून की दोपहर में बरसती बरखा सी हो तुम

सर्दियों की धूप में

हवाओं में झूमती खिली खिली सरसों के फूलों सी हो तुम

सावन की पहली बारिश में भीगी

गांव की मिटटी की सोंधी सोंधी ख़ुशबू सी हो तुम

अल्हड बल खाती अनजान डगर पे

अपनी ही धुन में

बहती नदिया की रवानगी सी हो तुम

किसी कवि के

कोमल ख्यालों में उपजी

एक खुबसूरत कविता सी हो तुम

बोलती आँखों से

कहे गए खामोश अफ़साने सी हो तुम

कभी मेरे मन का सकून

कभी मेरे दिल की बेकरारी सी हो तुम


------ सुदेश भट्ट ------