Friday, March 5, 2010

पहाड़

कई पीढियों के उत्थान पतन का

मूक गवाह

आग ,पानी,सूखे और तूफानों में

जाने कितनी सदियों से

सब कुछ सहता हुआ

अचल खड़ा है

उसके सीने को खोद कर

बड़े बड़े पत्थरों को खंडित कर

हमने अपने रहने को

घर बनाये

उसके सीने में हल चला कर

हमने अपनी फसले उगाई

उसके जतन से पोषित

पेड़ों को काट कर हमने

अपने चूल्हे जलाये

उसकी ही  नदियों   के नीर से

अपनी प्यास बुझाई

मगर आज पहाड़ उदास है

आज वो खेत वो खलिहान

सूने है

उसका पोषित मनुष्य

समर्थवान हो गया है

गांव छोड़ कर

शहरों में बस गया है

गांव में

अब वो गहमा गहमी नही रही

जहाँ हर तरफ भीड़ रहती थी

अब कई - कई दिनों तक

कोई नज़र नही आता

गांव खाली खाली से लगते है उसे अब

दूर तक पसरा सन्नाटा

उसके अकेलेपन के अहसास को

कुछ और बढ़ा देता है

उसका भी

मन नही लगता अब यहाँ

मगर वो जाए तो जाए कहाँ

वो इन्तज़ार में खडा है

शायद कभी कोई लौट के आए .........

--सुदेश भट्ट---

जिंदगी

हर तरफ धुआं-धुआं सुलगती हुई जिंदगी ,

अविशवास,संशय, छल,कपट की चादर में लिपटी हुई जिंदगी !

चीथडो में बेसुध दुधमुहे बच्चे की

भूख का वास्ता देती

शहर की सड़कों पे

आग उगलती दोपहरों में भटकती हुई जिंदगी !

नशे और जुर्म की दलदल में

अपने मासूम बचपन

और अपनों से बिछड़ी हुई जिंदगी !

कूडे के ढेर में

कुत्तों के साथ

बची खुची जूठन के लिए

लड़ती झगड़ती हुई जिंदगी !

जय जवान जय किसान

का नारा देने वाले देश में

कर्ज के बोझ से दम तोड़ती हुई जिंदगी !

मनुष्य के निज स्वार्थों से

शर्मशार

अपने आप में सिमटती हुई जिंदगी !

किसी के लिए नेमत

किसी के लिए बोझ

मनुष्य की ह्रदयहीनता पर हंसती हुई जिंदगी !

क्यूं सब के लिए एक सी नही

जिंदगी ये जिंदगी ??????????????

--सुदेश भट्ट---

सूत्रधार

मुझको मुस्कराने दो फूलों की तरह

मुझको गुनगुनाने दो भवरों की तरह

मुझको इठलाने दो तितलियों की तरह

मुझको बल खाने दो नदियों की तरह

मुझको उड़ जाने दो हवाओं की तरह

मुझको झिलमिलाने दो सितारों की तरह

मुझको पल्वित होने दो कुसुम लतावों की तरह

मुझको धरा पे आने दो बहारों की तरह

मैं ही माँ हूँ मैं ही बहन हूँ

मैं ही प्रियतमा भी हूँ

मै ज़िंदगी का आधार हूँ

आनेवाले कल की सूत्रधार हूँ

होने दो इस बसुन्धरा पे

मुझको भी साकार

न मुझ से छीनो मेरा ये हक़

मैं गर्भ मे ले रही आकार हूँ


----- सुदेश भट्ट -----

कागज

अपने जज्बातों को कागज पे कलम से उकेरता हूँ

जो पल मै जी चुका हूँ उनको फ़िर से

अपने हाथों से समेटता हूँ

कोई अहसास कोई दर्द जब दिल मे चुभन पैदा करता है

उस जख्म को कुछ और कुरेदता हूँ

फ़िर उसके निशान कागज पे उकेरता हूँ

शब्दों के हेर फेर मे ख़ुद को उलझाता हूँ

बात इतनी सी है जो बात आज तक

ख़ुद नही समझा, ओरों को समझाता हूँ

ख्यालों के सागर मे शब्दों के तूफान उठाता हूँ

दिल जब खाली खाली लगता है

उसपे कुछ बार बार लिखता हूँ, मिटाता हूँ !

-----सुदेश भट्ट -------