Saturday, July 18, 2015

-.- तुम -.-

 

खामोशियाँ
रात की
स्याह गुमसुम अंधेरे
से कुछ
कहती होंगीं
सिसकियाँ
तन्हा सन्नाटे की
चाँद ने सुनी होंगीं
जब लीन होगा
निंद्रा में जग सारा
चाँद तक
पहुँचने की
चकोर ने तरकीबें
कई बुनी होंगीं
दास्तानें
पुष्प पंखुड़ियों
में बंद
भंवरों ने अपनी
प्रीत की
जब कही होंगीं
जब चंद
खुशकिस्मत
ओस की बूँदें
सीपियों में
गिर कर
मोती बनीं होंगीं
जब सूरज की
पहली स्वर्णिम
किरण
धरा का आँचल
बनी होंगीं
जब संकुचाई सी
कोमल तरुण
कोपलें
अंगड़ाईयाँ लेकर
बीजों से फूटी होंगीं
जब खेतों में
बसंत आगमन पर
पीली सरसों की
असंख्य सघन कतारें
हवाओं के संग
ख़ुशी से
झूमी होंगीं
तब तब तुम
याद बहुत आये मुझको
तुम भी ना
मुझको भूलीं होंगीं ।

--- सुदेश भट्ट ---

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