Monday, August 24, 2009

दवा

ज़िन्दगी वक़्त बे वक़्त जख्मों को भरती रही ,

लाख दवा की मगर जुस्तजू ए सुकून में

फिर भी दर्द की तासीर बढती रही

कभी ज़िन्दगी

इस राह कभी उस मंजिल

ख्याले आरजू के पीछे भागती रही

दो घडी की पुरसत के लिए

अपनी फितरत से लड़ती रही

कभी नादानों की समझदारी

कभी अपनी

खताओं का हिसाब करती रही

जहाँ भर की

खुबसूरत रंगीनियों में कभी डूबी रही

कभी खामोश बेरंग सन्नाटों से लड़ती रही

कई बार चलते चलते थकी, मायूस हुई

थोडी देर को ठहरी,सुस्ताई

और फिर उसी गति से चलती रही


--सुदेश भट्ट---