Saturday, February 26, 2011

क्यों

दिल की ये बेचेनियाँ
अनबुझी सी ये
जिंदगी की पहेलियाँ
उलझी उलझी सी
हर उलझन
खुद से ही 
ये रोज़ की अनबन
बेतरतीब सा 
क्यों हो गया है
छोड़ के सलीका 
ये मेरा मन


-----सुदेश भट्ट ------

Tuesday, February 1, 2011

तुम

       तुम

दिल से की हुई 
इबादत सी हो तुम 
प्यार से लिखी हुई 
इक इबारत सी हो तुम
बड़े जतन से हांसिल हुई
कोई महारत सी हो तुम
सबकी नज़र बचा के 

अदा से की गई 
एक शरारत सी हो तुम
गुनगुनाये हर पल
जिनको दिल बेख्याली में 

ऐसे तरानों सी हो तुम
बचपन के छोटे छोटे  
मासूम बहानों सी हो तुम
नशेमन तुम्हारी दो आँखे 
छलकते हुए पैमानों सी हो तुम
हर रोज़ लगे
जिसमे ये दुनिया नई  

ऐसे जादुई आईने सी हो तुम
अलग अलग सबके लिए ज़िन्दगी के
खूबसूरत मायनों सी हो तुम
सर्द रात के बाद 

उगते सूरज की तपन सी हो तुम 
दूर हो मगर
नज़र को नसीब हो
रातों को चाँद से चकोर की 

लगन सी हो तुम!
---सुदेश भट्ट ---