Sunday, September 20, 2009

सबक

मन कभी कभी

विचलित हो जाता है,

अक्सर सोचता हूँ

जाने किस तरह कोई

किसी का मन

दुखा के खुशी पाता है

समझ नही पाया

क्यों मधुर वाणी को

काँटों सा कंटीला बनाया जाए

क्यों न

किसी का गम बाँट कर

रोते हुए को हंसाया जाए

जेसे चमचमाती हुई धुप

बिना नाप तोल

सब के लिए

जेसे सब के लिए

बूढे पीपल की छावं

जेसे अधखुली कलियाँ

महके सब के लिए

बिना भेदभाव

जेसे मखमली दूब

पावं तले

रोंदे जाने पर भी

गुदगुदाती सबके पाँव

क्यों न तेरा मेरा छोड़ के

सबको अपनाया जाए

छोड़ कर कडुवाहट और कठोरता

अपने ह्रदय को कोमल,

मधुर सर्वग्राही, सर्वहितकारी बनाया जाए !

--सुदेश भट्ट---

Sunday, September 6, 2009

दिल खानाबदोस

मै जीया तो जीया

मगर अपने लिए कब जीया,

कभी उसकी जुल्फों मे

कभी उसकी आंखो मे

दिल के फरेबों मे खोया रहा!

कभी मुझको इसकी चाहत

कभी दिल को उस से राहत,

दिल खानाबदोस

जाने किस किस की गली मे भटका किया !

----- सुदेश भट्ट -----

सोच

उसकी आंखो की हरकत

उसके चेहरे की शिकन से

उसकी सोच को पढता रहता हूँ ,

दुनिया से मोहब्बत से पेश आऊं

इसलिए अपने आप से लड़ता रहता हूँ!

इतनी बड़ी दुनिया में किस - किस का

मिजाज़ बदलता,

इसलिए रोज़

नए सांचे में ढलता रहता हूँ !

मेरे दुश्मनों को कोई आंच ना आए

यही सोच कर रोज़,

अपना बयान बदलता रहता हूँ !

----- सुदेश भट्ट -----

रिश्ते

तेरे मेरे इस रिश्ते में

शब्द अधूरे लगते है

जो तुम सुनती हो जो मैं कहता हूँ

वो अर्थ अधूरे लगते है!

अब के जो बिछड़े तो शायद

मिलना नामुमकिन हो,

यू तो सारी उम्र भी लोग

मिलते और बिछड़ते है!

चाहे कितना भी सहेज के रखो किताबो में,

वक़्त से पहले डाली से जो टूटे

वो फूल कहाँ फिर खिलते है!

जिनसे प्यार हो,

उनसे रोज कहो,उनसे रोज मिलो,

ऐसे मेहरबां रोज़ कहाँ ,

ज़िन्दगी में फिर मिलते है !

-----सुदेश भट्ट -------