रिमझिम रिमझिम
तपते जून की दोपहर में बरसती बरखा सी हो तुम
सर्दियों की धूप में
हवाओं में झूमती खिली खिली सरसों के फूलों सी हो तुम
सावन की पहली बारिश में भीगी
गांव की मिटटी की सोंधी सोंधी ख़ुशबू सी हो तुम
अल्हड बल खाती अनजान डगर पे
अपनी ही धुन में
बहती नदिया की रवानगी सी हो तुम
किसी कवि के
कोमल ख्यालों में उपजी
एक खुबसूरत कविता सी हो तुम
बोलती आँखों से
कहे गए खामोश अफ़साने सी हो तुम
कभी मेरे मन का सकून
कभी मेरे दिल की बेकरारी सी हो तुम
------ सुदेश भट्ट ------
Saturday, July 3, 2010
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