Thursday, November 19, 2009

नादान

कभी नादान रहा कभी अनजान रहा

कभी मसरूफ रहा कभी मगरूर रहा

कभी याद किया कभी भूल गया

कभी हँसता आया कभी रोता आया

कभी कुछ पा के आया

कभी सब कुछ खो के आया

कभी शुक्रिया कभी शिकवा करने आया

जब भी मैं तेरे दर पे आया

मैं ने ही कहा मैं ने ही सुना

तू मुझ मे ही छुपा था कहीं ऐ मेरे खुदा !


----- सुदेश भट्ट -----

कमी

रह रह कर रातों को सर्द हवा चलती रही

दिल पर परत दर परत दर्द की तह जमती रही

उससे जुदा हो कर केसे जिया क्या बताऊँ

दिल की धड़कन थमी रही साँस चलती रही

केसे ढ़ूढ़ता उसको इतने बड़े शहर में

वो जो मेरी तलाश में शहर बदलती रही

यूँ तो गुजर गई जिंदगी तन्हाईयों में

बस भीड़ में उसकी कमी खलती रही

सब कुछ भूल गया जब भी उसको याद किया

आँखों के पानी में बस

एक धुंधली सी तस्वीर बनती बिगड़ती रही !

--सुदेश भट्ट---

हिसाब


काँटों से भरी हर रहगुजर से वास्ता रखना

मंजिल तक पहुचना हो

तो कठिन अपने लिए रास्ता रखना

दोर ऐ गम गुजर जाएगा

वक्त हो मेहरबान तो भी खुदा से वास्ता रखना

वक्त हो बुरा तो दुश्मनों पे नज़र

दोस्तों से फासला रखना

झूट की बुनियाद पर

जब भी कोई रिश्ता रखना

सूखे हुए दरख्तों पे निगाह रखना

ना हो घर का माहोल खुशनुमा

तो घर की बातें घर में रखना

घर की दीवारों में हो दरारें

तो आवाज़ आहिस्ता रखना

नाज़ुक हो मिजाज़

तो जुबान पे काबू दिल में होंसला रखना

किसी और पे उंगली उठाने से पहले

अपने सामने

अपने गुनाहों का हिसाब रखना !


----- सुदेश भट्ट -----

Sunday, September 20, 2009

सबक

मन कभी कभी

विचलित हो जाता है,

अक्सर सोचता हूँ

जाने किस तरह कोई

किसी का मन

दुखा के खुशी पाता है

समझ नही पाया

क्यों मधुर वाणी को

काँटों सा कंटीला बनाया जाए

क्यों न

किसी का गम बाँट कर

रोते हुए को हंसाया जाए

जेसे चमचमाती हुई धुप

बिना नाप तोल

सब के लिए

जेसे सब के लिए

बूढे पीपल की छावं

जेसे अधखुली कलियाँ

महके सब के लिए

बिना भेदभाव

जेसे मखमली दूब

पावं तले

रोंदे जाने पर भी

गुदगुदाती सबके पाँव

क्यों न तेरा मेरा छोड़ के

सबको अपनाया जाए

छोड़ कर कडुवाहट और कठोरता

अपने ह्रदय को कोमल,

मधुर सर्वग्राही, सर्वहितकारी बनाया जाए !

--सुदेश भट्ट---

Sunday, September 6, 2009

दिल खानाबदोस

मै जीया तो जीया

मगर अपने लिए कब जीया,

कभी उसकी जुल्फों मे

कभी उसकी आंखो मे

दिल के फरेबों मे खोया रहा!

कभी मुझको इसकी चाहत

कभी दिल को उस से राहत,

दिल खानाबदोस

जाने किस किस की गली मे भटका किया !

----- सुदेश भट्ट -----

सोच

उसकी आंखो की हरकत

उसके चेहरे की शिकन से

उसकी सोच को पढता रहता हूँ ,

दुनिया से मोहब्बत से पेश आऊं

इसलिए अपने आप से लड़ता रहता हूँ!

इतनी बड़ी दुनिया में किस - किस का

मिजाज़ बदलता,

इसलिए रोज़

नए सांचे में ढलता रहता हूँ !

मेरे दुश्मनों को कोई आंच ना आए

यही सोच कर रोज़,

अपना बयान बदलता रहता हूँ !

----- सुदेश भट्ट -----

रिश्ते

तेरे मेरे इस रिश्ते में

शब्द अधूरे लगते है

जो तुम सुनती हो जो मैं कहता हूँ

वो अर्थ अधूरे लगते है!

अब के जो बिछड़े तो शायद

मिलना नामुमकिन हो,

यू तो सारी उम्र भी लोग

मिलते और बिछड़ते है!

चाहे कितना भी सहेज के रखो किताबो में,

वक़्त से पहले डाली से जो टूटे

वो फूल कहाँ फिर खिलते है!

जिनसे प्यार हो,

उनसे रोज कहो,उनसे रोज मिलो,

ऐसे मेहरबां रोज़ कहाँ ,

ज़िन्दगी में फिर मिलते है !

-----सुदेश भट्ट -------

Thursday, August 27, 2009

बचपन

वो नटखट सा बचपन वो गुड्डे-गुडियों का खेल

वो एक दुजे के पिछे भागना बनके छुक-छुक रेल

कभी आलमारी के अन्दर, कभी घर के किसी कोने मै


छुप जाना

आ जाओ...., बताओ मैं कहा हूँ चिल्लाना....

और वो अंधेरे से घबरा के ख़ुद ही नज़रों मे आ जाना

वो रात में किताबों पे सर रख के सो जाना

माँ के आने की आहट पे नींद मे ही

एक, दो, तीन, चार.... मुहं से निकल जाना

माँ का हंस के गोद मे उठा के गले से लगाना

वो स्कूल मे मध्य अंतराल में


कूदना, फांदना, उधम मचाना

पेडों पे चढ़ के आंवले खाना

पानी पीके, मीठा लगता है ये सबको बताना

छुट्टी के बाद घर के रास्ते में

मधुमक्खियो के छते पे पत्थर बरसाना

और फ़िर भागो कहके सबसे आगे भाग जाना

वो खलिहान मे बिल्ली के बच्चों को छुपाना

चोरी से उनको अपने हिस्से का दूध पिलाना

वो शाम को फुटबाल खेलने जाना

पास दे, अबे पास दे... साथियों का चिल्लाना

अकेले एक गोल से दुसरे गोल पोस्ट तक


फुटबाल को लेके जाना

और फ़िर जाने कब बचपन का चुपके से चले जाना

वो साथी वो गलियां, घर, माँ, गांव

सबका पीछे छूट जाना

अब लौट के नहीं आ सकते जो कभी

वो सारे पल अब हमेशा याद आते हैं.

----- सुदेश भट्ट ------

Monday, August 24, 2009

दवा

ज़िन्दगी वक़्त बे वक़्त जख्मों को भरती रही ,

लाख दवा की मगर जुस्तजू ए सुकून में

फिर भी दर्द की तासीर बढती रही

कभी ज़िन्दगी

इस राह कभी उस मंजिल

ख्याले आरजू के पीछे भागती रही

दो घडी की पुरसत के लिए

अपनी फितरत से लड़ती रही

कभी नादानों की समझदारी

कभी अपनी

खताओं का हिसाब करती रही

जहाँ भर की

खुबसूरत रंगीनियों में कभी डूबी रही

कभी खामोश बेरंग सन्नाटों से लड़ती रही

कई बार चलते चलते थकी, मायूस हुई

थोडी देर को ठहरी,सुस्ताई

और फिर उसी गति से चलती रही


--सुदेश भट्ट---

Wednesday, August 19, 2009

मै


मै अपने आप से ऊब गया हूँ

थोड़ा इसके जैसे थोड़ा उसके जैसे बनते बनते

ख़ुद से कही दूर निकल गया हूँ!

अनगिनत तेज चलते कदम, पीले चेहरे झुके कंधो पे रखे हुए

एक दुसरे से आगे निकलने की कोशिश मे गिरते पड़ते हुए

दुर्घटनाओ के शहर मे, साजिशो के तार बुनते हुए

असमंजस के झूले मे झूल रहा हूँ

थोड़ा बुरा थोड़ा भला बनते बनते

ख़ुद से कही दूर निकल गया हूँ!

बंद दरवाजो के पीछे चीखते चिल्लाते हुए

रात को अंधेरे कोनो मे दबी जुबान मे फुसफुसाते हुए

सच को झूट की सलीब पे छटपटाते हुए

रिश्तों की बुनियाद को हैवानियत से ढहाते हुए

मै अपने आप से बिछड़ गया हूँ

इस भीड़ मे अपना वजूद तलाशते हुए

ख़ुद से कही दूर निकल गया हूँ !

------ सुदेश भट्ट -------

Monday, June 29, 2009

आस पास

मेरे आस पास झूट का दलदल है,

मैं उसमें लम्हा-लम्हा डूब रहा हूँ !

जितना भी हाथ-पांव मारता हूँ

और कुछ अन्दर धंस जाता हूँ !

मेरे आस पास आहिस्ता आहिस्ता,

लोगों का भंवर बनता जा रहा है !

याहूमेल, जीमेल , ऑरकुट,

फेसबुक,ट्वीटर ,

और मैं कई टुकडों में बंटता बिखरता जा रहा हूँ !

लेकिन क्या करू समय के साथ चलने की होड़ में ,

मैं भी दोड़ में शामिल हूँ

वक़्त धीरे-धीरे रेत की तरह

हाथ से फिसलता जा रहा है!

यूजर नेम, पास वर्ड, स्क्रेप्बुक,वॉल .कमेन्ट

इन्बौक्स, रिप्लाई में उलझता जा रहा हूँ ,

अपने आप को

अपने दोस्तों को अपने समय को खोता जा रहा हूँ !

-----सुदेश भट्ट -------

वो जो था

वो जो था मै नहीं था ,

मुझ मे ही कोई दूसरा शख्श छुपा था,

जिस को मै पहचान नहीं पाया,मेरा ही अक्श छुपा था!

हकीकत को समझने मे बड़ी देर लगी,

उसको यकीं नहीं होता वो अपनी पूरी जिन्दगी

परछायियो के पीछे भागता रहा था!

रफ्फ्ता-रफ्फ्ता जब उसे चेहरे पढ़ने का हुनर आया,

अपनी कमजोर निगाहों से खोया सा हुआ

हर चेहरे मै वो जाने क्या ढूँढ रहा था!

थक के गहरी नींद सोने से पहले,

वो ज़िन्दगी से पूरी ताकत से लड़ा था!

वक्ते रुखसत कोई साथ नहीं था ,

यूं तो पूरी उम्र वो सबको लेके साथ चला था!

------ सुदेश भट्ट ------

Thursday, June 25, 2009