Thursday, August 27, 2009

बचपन

वो नटखट सा बचपन वो गुड्डे-गुडियों का खेल

वो एक दुजे के पिछे भागना बनके छुक-छुक रेल

कभी आलमारी के अन्दर, कभी घर के किसी कोने मै


छुप जाना

आ जाओ...., बताओ मैं कहा हूँ चिल्लाना....

और वो अंधेरे से घबरा के ख़ुद ही नज़रों मे आ जाना

वो रात में किताबों पे सर रख के सो जाना

माँ के आने की आहट पे नींद मे ही

एक, दो, तीन, चार.... मुहं से निकल जाना

माँ का हंस के गोद मे उठा के गले से लगाना

वो स्कूल मे मध्य अंतराल में


कूदना, फांदना, उधम मचाना

पेडों पे चढ़ के आंवले खाना

पानी पीके, मीठा लगता है ये सबको बताना

छुट्टी के बाद घर के रास्ते में

मधुमक्खियो के छते पे पत्थर बरसाना

और फ़िर भागो कहके सबसे आगे भाग जाना

वो खलिहान मे बिल्ली के बच्चों को छुपाना

चोरी से उनको अपने हिस्से का दूध पिलाना

वो शाम को फुटबाल खेलने जाना

पास दे, अबे पास दे... साथियों का चिल्लाना

अकेले एक गोल से दुसरे गोल पोस्ट तक


फुटबाल को लेके जाना

और फ़िर जाने कब बचपन का चुपके से चले जाना

वो साथी वो गलियां, घर, माँ, गांव

सबका पीछे छूट जाना

अब लौट के नहीं आ सकते जो कभी

वो सारे पल अब हमेशा याद आते हैं.

----- सुदेश भट्ट ------

Monday, August 24, 2009

दवा

ज़िन्दगी वक़्त बे वक़्त जख्मों को भरती रही ,

लाख दवा की मगर जुस्तजू ए सुकून में

फिर भी दर्द की तासीर बढती रही

कभी ज़िन्दगी

इस राह कभी उस मंजिल

ख्याले आरजू के पीछे भागती रही

दो घडी की पुरसत के लिए

अपनी फितरत से लड़ती रही

कभी नादानों की समझदारी

कभी अपनी

खताओं का हिसाब करती रही

जहाँ भर की

खुबसूरत रंगीनियों में कभी डूबी रही

कभी खामोश बेरंग सन्नाटों से लड़ती रही

कई बार चलते चलते थकी, मायूस हुई

थोडी देर को ठहरी,सुस्ताई

और फिर उसी गति से चलती रही


--सुदेश भट्ट---

Wednesday, August 19, 2009

मै


मै अपने आप से ऊब गया हूँ

थोड़ा इसके जैसे थोड़ा उसके जैसे बनते बनते

ख़ुद से कही दूर निकल गया हूँ!

अनगिनत तेज चलते कदम, पीले चेहरे झुके कंधो पे रखे हुए

एक दुसरे से आगे निकलने की कोशिश मे गिरते पड़ते हुए

दुर्घटनाओ के शहर मे, साजिशो के तार बुनते हुए

असमंजस के झूले मे झूल रहा हूँ

थोड़ा बुरा थोड़ा भला बनते बनते

ख़ुद से कही दूर निकल गया हूँ!

बंद दरवाजो के पीछे चीखते चिल्लाते हुए

रात को अंधेरे कोनो मे दबी जुबान मे फुसफुसाते हुए

सच को झूट की सलीब पे छटपटाते हुए

रिश्तों की बुनियाद को हैवानियत से ढहाते हुए

मै अपने आप से बिछड़ गया हूँ

इस भीड़ मे अपना वजूद तलाशते हुए

ख़ुद से कही दूर निकल गया हूँ !

------ सुदेश भट्ट -------