Sunday, September 20, 2009

सबक

मन कभी कभी

विचलित हो जाता है,

अक्सर सोचता हूँ

जाने किस तरह कोई

किसी का मन

दुखा के खुशी पाता है

समझ नही पाया

क्यों मधुर वाणी को

काँटों सा कंटीला बनाया जाए

क्यों न

किसी का गम बाँट कर

रोते हुए को हंसाया जाए

जेसे चमचमाती हुई धुप

बिना नाप तोल

सब के लिए

जेसे सब के लिए

बूढे पीपल की छावं

जेसे अधखुली कलियाँ

महके सब के लिए

बिना भेदभाव

जेसे मखमली दूब

पावं तले

रोंदे जाने पर भी

गुदगुदाती सबके पाँव

क्यों न तेरा मेरा छोड़ के

सबको अपनाया जाए

छोड़ कर कडुवाहट और कठोरता

अपने ह्रदय को कोमल,

मधुर सर्वग्राही, सर्वहितकारी बनाया जाए !

--सुदेश भट्ट---