Saturday, July 18, 2015

-.- तलबगार -.-



बहुत याद किये
गुजरे हुए दिन
जो बीत गए वो
फिर कभी
लौट के नही आये
जो पास थे
उनकी कद्र न हुयी
जो चले गए दूर
वो फिर कभी
ज़िन्दगी तेरे उसूल
हमको रास नही आये
वापस नही आये जिनके खोने के डर से
मुझको पल भर भी
साँस नही आये
जब मैं बिछड़ा उनसे
वो चंद कदम भी
मेरी तलाश में
नही आये
यूँ तो लोग
क्या क्या नहीं
बना लेते हुनर से
मगर हम मिटा के
तेरी सूरत जेहन से
बुत फिर कभी कोई
तराश नही पाये
बड़ी बेनूर
बेरंग सी गुज़रीं
मेरी रातें
तेरे जाने के बाद
कभी नींद नहीं आई
तो कभी
ख़्वाब नहीं आये
कहते थे वो
रहेगी उनको मुझ से
ताउम्र मुहब्बत बेइन्तहां
मगर
एक ज़माना गुज़रा
ख़त के साथ
लिफाफे में बंद
गुलाब नहीं आये
था वही शहर
थी वही गलियां
हम खोल के बैठे रहे
दरवाजे ,खिड़कियां
यूँ तो सब आये
दिले बीमार का
हाल पूछने
था जिनसे
आलम ए सुकून
थी नज़र
जिनकी तलबगार
नहीं आये तो बस
वही ज़नाब नहीं आये ।

--- सुदेश भट्ट ---

No comments: