Saturday, July 18, 2015

-.- पथिक -.-

  

दुर्गम पथिक की
राह बहुत थी
पाने की मंजिल
लेकिन चाह बहुत थी
कभी तन
झुलसा देनी वाली
उष्णता बरसती थी
नभः से दिन में
कभी निष्ठुर ओस बरसती थी
ठिठुरती रातों में
प्रस्थितियां
विकट बहुत थी
कभी बूँद बूँद
जल को सूखा
कंठ तरसता था
कभी बरसते थे
घन तामसी टूट कर
लगता था
प्रलय का सा मंज़र
कभी रह रह कर
कौंधती थी
चपलता से बिजली
दिल था आकुल
मन में
शंकायें बहुत थी
फिर मन ने
रार ठानी
कैसे मंज़िल मिलेगी
यूँ गर हार मानी
चलना ही
पथिक का कर्म है
जो अविचलित
अविराम
चलता रहा
उसको मिली
उसकी मंज़िल
यही जीवन का मर्म है
छंट गए
सघन तम के
अब बादल
मन में दृढ निश्चय
और आँखों में अब
आशाएं बहुत थी ।

--- सुदेश भट्ट ---

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