Saturday, July 18, 2015

-.- आवारगी -.-

  


दरख्तों से गिरते हुए
सूखे पत्तों का
कोई ठिकाना नहीं होता
कोई अपना
कोई बेगाना नहीं होता
हमने भी सीख ली होती
तुझ से
तेरी मक्कारियां गर
तू मेरे दोस्त
मुझ से यूँ खपा नहीं होता
जी ले ज़िन्दगी को
फकीरों की तरह मुसाफिर
मांग ले चाहे
जितनी मन्नतें
यहाँ कोई
किसी का नहीं होता
ज़िन्दगी से
ना कर दिल्लगी
ये जाने कब किसको
दगा दे जाये
आजकल मौत का
कोई बहाना नहीं होता
तू ग़ालिब नहीं
तू मीर नहीं
की तुझको ज़माना
तेरे बाद याद रखे
चंद कलाम
पढने लिखने से
ज़माना किसी का
दीवाना नहीं होता
ना दर की
ना रहगुजर की
ना हमसफ़र की
बंदिशों में
तू मुझ को बाँध
अब मेरी आवारगी
मुझ से एक जगह
ज्यादा दिन गुजारा नहीं होता !

--- सुदेश भट्ट ---

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