Saturday, July 18, 2015

-.- जाने कब -.-

  

जाने कब मैंने
अंतिम बार
नज़र भर सकून से देखा था
पर्वत के उस पार क्षितिज पे डूबते
स्वर्णिम सूरज को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार सुना था
नीड़ को लौटते
कलरव करते
पंछियों के नाद को
याद नहीं ।
जाने कब मैं
अंतिम बार
पल भर को बैठा था
दुम्र लतावों की
सघन ठंडी छांव में
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
हवा में लहराते
गेंहू की बालियों से
भरे खेत को गांव में
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार सुना था
हल जोतते बैलों के गले में बजती
घंटियों की आवाज़ को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
छत की मुंडेर से
पहली उड़ान भरते
गौरया के बच्चों की परवाज़ को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
पनघट पे
ठिठोलियां करती
पानी भरने आयी गोरियों को गाँव की
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार सुना था
दूर कहीं हरी भरी
वादियों से आती
ग्वालों की बांसुरी की मधुर तान को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
इस कंक्रीट के जंगल
शहर की भागम भाग में
ख़ुश अपने अन्दर के इंसान को
याद नहीं ।

--- सुदेश भट्ट ---

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