Saturday, July 18, 2015

-.- बेबस -.-

  

चीखें चीत्कारें
हर तरफ
पग पग पर बाकि
बस खँडहर थे
सुनाई बस देता था
चहुँ और
करुण क्रन्दन
दर्द ही बस जैसे
इस पल की थी भाषा
जैसे कभी कुछ
था ही नहीं
पलक झपकते ही
सब कुछ यूँ
अस्तित्वहीन हुआ
कंपकपाती थी
रह रह कर धरती
पल भर में
जो कुछ भी था
मनुष्य निर्मित
सब मिट्टी में
विलीन हुआ
प्रलय की भी
जैसे थी प्रकाष्ठा
चिर निंद्रा के
भागीदार बने
अनगिनत
असमय अकाल
हिर्दय विदारक
हर और दृश्य
जीवन की
ज़िज़िविषा पर था भारी
कठोर क्रूर काल
मनुष्य वो जो
खुद को सर्वोपरि
सब विषयों का ज्ञाता
सर्वज्ञ रहा था मान
मनुष्य वो
जिसके पास
चाँद के बाद
भविष्य में
मंगल पर उतरने
का था विज्ञान
झुका मस्तक
सोच रहा
चूर चूर था अभिमान
पूरी धरती यूँ
डोल गयी
जैसे कोई
झूला झूल रहा
और रति भर भी न
इसके होने का
उसको था भान
मूक दर्शक सा बैठा
प्रकृति के आगे बेबस
कितना छोटा
खुद की नज़रों में
आज था इंसान ।

--- सुदेश भट्ट ---
( नेपाल में आये भूकम्प की हिर्दय विदारक परिस्थिति पर आधारित )

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