Saturday, September 18, 2010

फासले

वक़्त की गर्दिश में

ये भी अहसास हुए

तुम पहले दूर से करीब

और फिर पास से बहुत दूर हुए

केसा है चलन

देखो उल्टा जमाने का

हम तुम में और

तुम खुद में मसरूफ हुए

आदत सी हो गई तेरी

खुद के बनाए इन सिलसिलों में कही

मेरे सफ़र को थी तन्हाई की तलाश

तुम खोये रहे काफिलों में कहीं

मेरी हर साँस ने तुझे ढूंढा

मेरे हर पल ने तेरी कमी महसूस की

तेरे मेरे दरमियाँ कुछ तो है

कभी ख़तम न होने वाले

ये फासले ही सही

--सुदेश भट्ट ---

4 comments:

D said...

AYM... I am ur fan :)

Kundan said...

I like ur poems :)

Sudesh Bhatt said...

धन्यबाद कुंदन जी! आप को मेरी कवितायेँ पसंद आई जान कर ख़ुशी हुई उत्साहवर्धन हेतु पुनः धन्यबाद :-)

Sudesh Bhatt said...

आप जेसे प्रशंसक ही इन कविताओं के वास्तविक जनक है धन्यवाद D :-)