अनबुझी सी ये
जिंदगी की पहेलियाँ
उलझी उलझी सी
हर उलझन
खुद से ही
ये रोज़ की अनबन
बेतरतीब सा
क्यों हो गया है
छोड़ के सलीका
ये मेरा मन
-----सुदेश भट्ट ------
दर्द को पी गया
देके खुद को फरेब
देख मैं फिर
मुगालतों में जी गया
आह निकली तो थी
दिल से मेरे
गौर तलब है
की मेरे खुदा
तू अनसुना कर गया
आखरी मेरी ख्वाहिशों में
था तेरा नाम
ये अलग बात है
आखरी वक़्त में
अपने होंठो को मैं सी गया
रजिशों में भी तेरी
थी कोई बात
की मैं तुझको
खेर मकदम अपना कह गया
--सुदेश भट्ट ---
--सुदेश भट्ट---
बचपन से ही कवितायेँ पढने में रूचि थी धीरे धीरे ये रूचि लिखने मे तब्दील हो गयी ,कहीं भी आते जाते कोई चीज मन को छू जाती है या आहत कर जाती है तो अपने आप ही मन शब्दों का एक ताना बाना बुन लेता है और बन जाती है एक नई कविता ! यूँ कई बार कोशिश की पर लिखना है ये सोच कर कभी कुछ नहीं लिख पाया इस लिए ज्यादा नहीं पर थोडा बहुत लम्बे अंतराल पे कुछ नया लिख पाता हूँ! आशा है आप को मेरी कविताये पसंद आयेंगी आपकी राय आपके विचारों का स्वागत है , ब्लॉग पर आने के लिए आपका आभार