Saturday, July 18, 2015

-.- सवाल -.-



खुश्क आँखों में तेरी
कभी आंसू का
कोई कतरा
आता तो होगा
मेरी आहों का असर
कभी तुझको
रुलाता तो होगा
मेरी यादों का सिलसिला
कभी तुझको
बेचैन कर जाता तो होगा
कागज़ के
किसी कोने में कभी
मेरा नाम तुमने
कई बार लिखा
और मिटाया
तो होगा
तूने लाख
छुपाया होगा
ज़माने से
मेरा फ़साना
बे खयाली में
तेरी आँखों में
मेरा अक्श
उभर आता तो होगा
तुम भूले होंगे
मुझको बेशक
पर मुझको यकीं है
आज भी
मेरा नाम सुनकर
तेरा दिल
लरज़ जाता तो होगा
कभी ख्याल
आता तो होगा
मुझ से विछड़ने का
दिल में मलाल
आता तो होगा
हम कैसे जिये
तुझ से ज़ुदा होके
ये ज़ेहन में
सवाल आता तो होगा ।

--- सुदेश भट्ट ---

-.- जाने कब -.-

  

जाने कब मैंने
अंतिम बार
नज़र भर सकून से देखा था
पर्वत के उस पार क्षितिज पे डूबते
स्वर्णिम सूरज को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार सुना था
नीड़ को लौटते
कलरव करते
पंछियों के नाद को
याद नहीं ।
जाने कब मैं
अंतिम बार
पल भर को बैठा था
दुम्र लतावों की
सघन ठंडी छांव में
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
हवा में लहराते
गेंहू की बालियों से
भरे खेत को गांव में
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार सुना था
हल जोतते बैलों के गले में बजती
घंटियों की आवाज़ को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
छत की मुंडेर से
पहली उड़ान भरते
गौरया के बच्चों की परवाज़ को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
पनघट पे
ठिठोलियां करती
पानी भरने आयी गोरियों को गाँव की
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार सुना था
दूर कहीं हरी भरी
वादियों से आती
ग्वालों की बांसुरी की मधुर तान को
याद नहीं ।
जाने कब मैंने
अंतिम बार देखा था
इस कंक्रीट के जंगल
शहर की भागम भाग में
ख़ुश अपने अन्दर के इंसान को
याद नहीं ।

--- सुदेश भट्ट ---

-.- तांडव -.-

  

हर आँख हुई है नम
हर आँख में पड़ गए
आंसू कम
मांगी थी तुझ से
अपनों की ख़ुशी
तूने दे दिए
ज़िन्दगी भर के गम
खंड खंड हुए पहाड़
कैसा महाकाल
विकराल
किया ये तांडव
सदियों से
पहाड़ सरीखी
अथाह -अचल
मेरी आस्था पड़ गयी कम
तेरे होते तेरे दर पे
कैसा ये
शमशान सा मंज़र
मांगे सूनी गोदें बंजर
डूबा चाँद किसी का
बिछड़ा किसी के
आँचल से
आँखों का तारा
मुझको यकीं था
तू यहीं कहीं है
जब छूटा था
रूह से तन का नाता
जब मै दफ़न हुआ
सैलाब में तेरे
भरम कुछ तो
दुनिया के लिए
रख छोड़ा होता
डूबी जब सारी दुनिया मेरी
तू भी तो संग मेरे डूबा होता!

--- सुदेश भट्ट ---

(2013 केदारनाथ में आयी प्रलय आपदा में मारे गए लोगों को समर्पित )

-.- आवारगी -.-

  


दरख्तों से गिरते हुए
सूखे पत्तों का
कोई ठिकाना नहीं होता
कोई अपना
कोई बेगाना नहीं होता
हमने भी सीख ली होती
तुझ से
तेरी मक्कारियां गर
तू मेरे दोस्त
मुझ से यूँ खपा नहीं होता
जी ले ज़िन्दगी को
फकीरों की तरह मुसाफिर
मांग ले चाहे
जितनी मन्नतें
यहाँ कोई
किसी का नहीं होता
ज़िन्दगी से
ना कर दिल्लगी
ये जाने कब किसको
दगा दे जाये
आजकल मौत का
कोई बहाना नहीं होता
तू ग़ालिब नहीं
तू मीर नहीं
की तुझको ज़माना
तेरे बाद याद रखे
चंद कलाम
पढने लिखने से
ज़माना किसी का
दीवाना नहीं होता
ना दर की
ना रहगुजर की
ना हमसफ़र की
बंदिशों में
तू मुझ को बाँध
अब मेरी आवारगी
मुझ से एक जगह
ज्यादा दिन गुजारा नहीं होता !

--- सुदेश भट्ट ---

Saturday, August 31, 2013

तस्वीर

     

तेरे शानों पे बिखरे
घने गेसुओं से ये शाम के अंधेरे हैं
आफताब है तू
तेरे नूर से रोशन ये सवेरे हैं
करो मेरा यकीं दिलनशीं
चुराए सारे रंग
तितलियों ने तेरी तस्वीर से हैं
निकला न करो
बेपरवाह चमन में
ये बागों में खिले फूल
तेरी खुशबू के लुटेरे हैं
सुने थे बचपन में
कहानियों में
परियों के किस्से
देखा तुमको
तो आज मालूम हुआ
वो सारे तेरे ही रूप के चरचे हैं
रहे तू और तेरी तिशनगी
मेरे दिल में बाकि
तेरी आँखों की बात कुछ और है
यूँ तो डूबने को समन्दर बहुतेरे हैं 



----  सुदेश भट्ट  ----



Wednesday, March 16, 2011

सबब

वजूद मेरा टूट कर
ज़र्रा ज़र्रा रेत की तरह बिखर गया
जो था ख़ुशी का सबब
जहाँ भर का गम वही दिल में भर गया
न आई रास मुझको
कुछ अपनों की मेहरबानियाँ
गेरों को भी कुछ
मेरा मुस्कराना शायद अखर गया
ज़ख़्म रिसते रहे
खामोशियाँ सिसकती रही
वो मेरा फिक्रमंद
हमदम जाने किधर गया
दुनिया से कर दिया था
मुझको जिसने बेगाना
वो जूनून
बरसात के दरिया सा धीरे धीरे उतर गया !


-----सुदेश भट्ट ------

Friday, March 11, 2011

दुनिया

दुनिया तेरी
इनायतों से दिल अब मेरा भर गया
मै जिंदा हूँ
मगर मेरे अन्दर का इंसान मर गया
आया था
बड़ी ति॰शनगी लेकर मै सेहराँ से
देख कर
खारापन समन्दर का 
प्यासा ही गुज़र गया
अच्छा हुआ
जो बेअदब ये दिल टूट गया
चलो इस बहाने से
तहज़ीब ए गमे इश्क तो सीख गया !


-----सुदेश भट्ट -----

Friday, March 4, 2011

कारोबार

कर के फ़ना मेरी हस्ती को
तू जाने तुझको क्या मिला
हम तो कारोबार
छुपा के सबकी नज़रों से
अश्कों का अब करते है
खो के तुझे ढूंडा तो
तू कुछ और मुकम्मल
मुझ में ही मिला
सोचा था करेंगेभूले से भी याद तुझे
देखो ये गुनाह भी अब हम करते है
ताउम्र चुभते है
दिल में खंजर की तरह कुछ रिश्ते
अपनों के दिए ज़ख्मौं कोकोई भी दवा कहाँ फिर भरती हैं
जिन दरख्तों को बेवक्त ही
रास आ जाए मौसम पतझड़ का 
उनकी सूखी शाखौं को फिर  
बहार भी आ कर  
कहाँ हरा करती है

-----सुदेश भट्ट -----

Wednesday, March 2, 2011

इंसान



कुछ देर से सही
चेहरे पे तुम्हारे भी
एक चेहरा चस्पा निकला
आसान नहीं फ़रिश्ता बनना
इंसानों सा आखिर
तुम्हारी भी फितरत का 
किस्सा निकला
मतलब से बाबस्ता
इंसान का इंसान से रिश्ता
क्या फर्क पड़ता है
तू सच्चा है या झूठा
अपनी अपनी राय है
अपना अपना मुद्दा
हम कैसे और क्यों अब
तुम्हारे मेहरम होते
हम ठहरे इंसान और तुम
कहते हो अपने को   ख़ुदा !



-----सुदेश भट्ट ------

Saturday, February 26, 2011

क्यों

दिल की ये बेचेनियाँ
अनबुझी सी ये
जिंदगी की पहेलियाँ
उलझी उलझी सी
हर उलझन
खुद से ही 
ये रोज़ की अनबन
बेतरतीब सा 
क्यों हो गया है
छोड़ के सलीका 
ये मेरा मन


-----सुदेश भट्ट ------