Friday, March 5, 2010

कागज

अपने जज्बातों को कागज पे कलम से उकेरता हूँ

जो पल मै जी चुका हूँ उनको फ़िर से

अपने हाथों से समेटता हूँ

कोई अहसास कोई दर्द जब दिल मे चुभन पैदा करता है

उस जख्म को कुछ और कुरेदता हूँ

फ़िर उसके निशान कागज पे उकेरता हूँ

शब्दों के हेर फेर मे ख़ुद को उलझाता हूँ

बात इतनी सी है जो बात आज तक

ख़ुद नही समझा, ओरों को समझाता हूँ

ख्यालों के सागर मे शब्दों के तूफान उठाता हूँ

दिल जब खाली खाली लगता है

उसपे कुछ बार बार लिखता हूँ, मिटाता हूँ !

-----सुदेश भट्ट -------

2 comments:

Hemant said...

आप की कबिता"कागज"बहुत ही अच्छी लगी !

समय की धारा में उम्र बह जानी हैं
जो घडी जी लेंगे वही रह जानी है !

Sudesh Bhatt said...

हेमंत जी आपने कविता पढ़ी और अपने विचार ब्यक्त किये ख़ुशी हुई, धन्यबाद