हर तरफ धुआं-धुआं सुलगती हुई जिंदगी ,
अविशवास,संशय, छल,कपट की चादर में लिपटी हुई जिंदगी !
चीथडो में बेसुध दुधमुहे बच्चे की
भूख का वास्ता देती
शहर की सड़कों पे
आग उगलती दोपहरों में भटकती हुई जिंदगी !
नशे और जुर्म की दलदल में
अपने मासूम बचपन
और अपनों से बिछड़ी हुई जिंदगी !
कूडे के ढेर में
कुत्तों के साथ
बची खुची जूठन के लिए
लड़ती झगड़ती हुई जिंदगी !
जय जवान जय किसान
का नारा देने वाले देश में
कर्ज के बोझ से दम तोड़ती हुई जिंदगी !
मनुष्य के निज स्वार्थों से
शर्मशार
अपने आप में सिमटती हुई जिंदगी !
किसी के लिए नेमत
किसी के लिए बोझ
मनुष्य की ह्रदयहीनता पर हंसती हुई जिंदगी !
क्यूं सब के लिए एक सी नही
जिंदगी ये जिंदगी ??????????????
--सुदेश भट्ट---
Friday, March 5, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
it's really touching, impressed
धन्यबाद :)
jivan ka patibebem...sach bahut kasela Hai...
धन्यबाद हेमंत जी आपने सही कहा सच कड़वा होता
Post a Comment