रह रह कर रातों को सर्द हवा चलती रही
दिल पर परत दर परत दर्द की तह जमती रही
उससे जुदा हो कर केसे जिया क्या बताऊँ
दिल की धड़कन थमी रही साँस चलती रही
केसे ढ़ूढ़ता उसको इतने बड़े शहर में
वो जो मेरी तलाश में शहर बदलती रही
यूँ तो गुजर गई जिंदगी तन्हाईयों में
बस भीड़ में उसकी कमी खलती रही
सब कुछ भूल गया जब भी उसको याद किया
आँखों के पानी में बस
एक धुंधली सी तस्वीर बनती बिगड़ती रही !
--सुदेश भट्ट---
Thursday, November 19, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
wah.... aapki ye kavita kaabile taareef hai :)
आपने पढ़ा और पसंद किया ये बात भी काबिले तारीफ है :)धन्यबाद D
Post a Comment